दुनिया की इकलौती महाशक्ति अमरीका इस वक़्त दो हिस्सों में बंटा नज़र आता है. इसकी वजह वहां नंवबर में होने वाला राष्ट्रपति चुनाव है.
आठ नवंबर को होने वाले मतदान में एक तरफ़ हैं रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार डोनल्ड ट्रम्प और दूसरी ओर हैं डेमोक्रेटिक पार्टी की प्रत्याशी हिलेरी क्लिंटन. दोनों के समर्थक एक दूसरे के इस क़दर विरोधी हैं कि एक दूसरे से नफ़रत करते हैं. दोनों ही एक दूसरे को धोखेबाज़ और गिरा हुआ मानते हैं.
कभी आपने सोचा कि आख़िर अलग विचारधारा को मानने वालों में इतनी नफ़रत क्यों है?
इसकी मिसाल हिंदुस्तान में भी देखने को मिलती है. यहां वामपंथियों और दक्षिणपंथियों के बीच मतभेद कई बार नफ़रत की तमाम हदें पार कर जाता है. ऐसा नहीं है कि सिर्फ़ अमरीका या भारत में ऐसा होता है. ब्रिटेन को ही लीजिए, जहां यूरोप के साथ रहने और उससे अलग होने के समर्थकों के बीच तनातनी किस क़दर बढ़ गई थी.
असल में पूरी दुनिया में ही यह चलन देखने को मिल रहा है कि कट्टरपंथियों और आज़ाद ख़याल लोगों, वामपंथियों और दक्षिणपंथियों के बीच विचारधारा का फ़र्क, नफ़रतों के दायरे में बंट रहा है. सोशल मीडिया में ये ख़ास तौर से देखने को मिल रहा है, जहां एक खेमे की ग़लती पर उसके विरोधी दूसरों को नीचा दिखाने में पूरी ताक़त से जुट जाते हैं.
आज के दौर में इंसान की समझदारी बढ़ी है, एक दूसरे से संपर्क बढ़ा है. फिर नफ़रत क्यों बढ़ रही है? विचारधारा के लिए लोग एक दूसरे के ख़ून के प्यासे क्यों हो गए हैं?
मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि आज एक तरह की राय रखने वालों के बीच संपर्क काफ़ी आसान हो गया है. संचार के तमाम तरीक़ों से एक तरह की विचारधारा वाले लोग एक-दूसरे से प्रभावित होते हैं. इसकी वजह से उनकी अपनी राय भी कट्टर होती जाती है. अपनी विचारधारा पर भरोसा बढ़ने के साथ ही लोग दूसरे के बारे में नफ़रत करने लगते हैं.
अमरीका की कोलोरैडो यूनिवर्सिटी की मनोवैज्ञानिक, जेसिका कीटिंग ने इस बारे में एक दिलचस्प तजुर्बा किया था. उन्होंने एक जैसे ख़याल रखने वाले लोगों को एक साथ कुछ देर के लिए बैठने का मौक़ा दिया. बाद में उन्होंने देखा कि अपने विचारों को लेकर उनकी राय और पक्की हो गई है. ऐसा सिर्फ़ पंद्रह मिनट की मुलाक़ात में ही हो गया था.
इसकी वजह यह है कि जब अपने जैसी राय रखने वालों से वे मिले, तो उनके तर्क, उनकी बातें भी सुनीं. इससे उनकी अपनी विचारधारा को भी मज़बूती मिली. अपने पक्ष में कहने के लिए और तर्क मिल गए. इससे वो और कट्टर हो गए.
आज का दौर ऐसा है कि हम अलग-अलग विचारधारा के लोगों के संपर्क में कम ही आते हैं. ऑनलाइन होने पर हमारा झुकाव अपने जैसी बातें करने वालों की तरफ़ ज़्यादा होता है. इस वजह से ज़िंदगी में दूसरे की राय बर्दाश्त करने की हमारी क्षमता कम होती जा रही है.
कुछ सालों पहले अमरीका की इलिनॉय यूनिवर्सिटी के मनोवैज्ञानिक मैट मोटिल ने इस बात को आज़माने की सोची. वो अलग-अलग शहरों में जाकर, अलग-अलग विचारधारा के लोगों से मिले. मैट ने देखा कि जब भी उन्होंने अपनी बात कहनी चाही, लोग आक्रामक हो उठे. उन्हें मूर्ख और धोखेबाज़ तक कह डाला, क्योंकि मैट ने उनकी राय को चुनौती दी थी.
मैट के तजुर्बे से साफ़ है कि लोग अपनी विचारधारा से मेल खाते ख़याल रखने वालों से ही मिलते हैं. उनके आस-पास ही रहना चाहते हैं. इससे उनमें कट्टरता बढ़ती है. यही वजह है कि आज अपनी विरोधी विचारधारा के प्रति लोगों का रुख़ सख़्त होता जा रहा है.
सोशल मीडिया के इस दौर में जब हर इंसान अच्छा ख़ासा वक़्त ऑनलाइन रहता है, कोशिश यही होती है कि अपने जैसी राय रखने वालों के ग्रुप का हिस्सा बनें. सूचना क्रांति के इस दौर में जानकारी आपकी उंगलियों पर मौजूद होती है. लोगों की बातें देख-सुनकर, आपको भी लगता है कि आपके ख़याल बिल्कुल सही हैं.
फिर आप भी सोचने लगते हैं कि बाक़ी लोगों को भी आप जैसी सोच ही रखनी चाहिए. क्येंकि आप ही सही हैं. अगर दूसरे लोग आपसे अलग सोच रखते हैं, तो आपको लगता है कि वो मूर्ख हैं. उनमें समझ की कमी है. आपको लगता है कि जितनी समझदारी आपके अंदर है, उतनी आपसे अलग विचार रखने वाले के अंदर नहीं.
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